वीरधरा न्यूज़।भीलवाड़ा@ श्री दुर्गेश लक्षकार।
भीलवाड़ा शहर से 14 किमी दूर स्थित कस्बे मांडल में वहाँ के निवासी एक अनूठी परम्परा का निर्वहन 408 वर्ष बाद आज भी कर रहे है। 1614 ईस्वी में मुग़ल बादशाह जहाँगीर, शहजादा खुर्रम,मुग़ल सम्राट शाहजहा, मेवाड़ महाराणा अमर सिंह से संधि करने मेवाड़ की तरफ आये तो कुछ समय के लिए यहाँ की तालाब की पाल पर अपनी बेगमो के साथ पड़ाव डाला। उनके मनोरंजन के लिए यहाँ के कलाकारों ने अपने शरीर पर रुई लपेट कर नाहर यानी शेर का रूप धारण कर उन्हें प्रसन्न किया। जिससे बादशाह खुश हुए, व इसे जारी रखने के लिए स्थानीय पाराशर वंशजो को शाही पत्र भेट किया। उसी परम्परा को पूरे देश मे यादगार बनाने के लिए स्थानीय लोग सुबह से अपने परिवार व मेहमानों के साथ रंग खेलते है। दोपहर में तालाब की पाल से बेग़म व मुख्य बाजार, नई नगरी की ओर से बादशाह की सवारी निकलती है जो मुख्य मार्गो से होती हुई तहसील कार्यालय तक जाती है जहाँ प्रशासनिक अधिकारियों को बादशाह व बेगम द्वारा रंग खिलाया जाता है। इसके बाद शुरू होता है मेहमानों के आने का दौर। हर घर मे पकवान बनते है विशेषकर गुलाबजामुन व दहीबड़े। शाम ढलते ही गाँव मे दो जगह ये रुई से बने नाहर अपने विशेष वाद्ययंत्रों की धुन के साथ नृत्य करते है जिनको देखने के लिए दूर दूर से लोग आते है। इस बार गाँव वालों ने रंग भी खेला, नाहर नृत्य भी हुआ, परन्तु कोरोना गाइड लाइन के चलते सार्वजनिक स्थान पर न होकर यह नृत्य केवल मंदिर व घरों तक ही सीमित रह गया। आज पूरे दिन प्रशासन व पुलिस व्यवस्था पूरी तरह से मुस्तेद नजर आयी।