वीरधरा न्यूज़। चित्तौड़गढ़@डेस्क।
चित्तौड़गढ़। शांति भवन में विराजिता श्रमण संघीय आचार्य सम्राट डाॅ. शिवमुनि की आज्ञानुवर्ती उपप्रवर्तिनी श्री वीरकान्ता जी की सुशिष्या साध्वी डाॅ. अर्पिता जी ने उत्तराध्ययन सूत्र के अठारहवें अध्ययन का विवेचन करते हुए कहा कि गोताखोर का रत्न आदि प्राप्त करने के लिए गहरे सागर में गोते लगाने पड़ते हैं। वैसे साधक को आत्मरत्नों की अवगाहना के लिए आगमों की गहराई से अध्ययन, चिन्तन, मनन और ध्यान करना आवश्यक है। उन्होंने कहा कि जिसमें विवेकाूर्वक सच्चे धर्म का विचार करके मुनिकृति अंगीकार की है, जो सम्यक दर्शन आदि से युक है, जो माया रहित होकर सरल और निदान रहित तपक्रिया करने वाला है, जिसने अपने गृहस्थाश्रम के परिचयों को त्याग दिया है जो विषय भोग की अभिलाषाओं से मुक्त है, अज्ञात कुलों, घरों से गोचरी करता हुआ अप्रतिबद्ध विहार करता है वह भिक्षु कहलाता है। लोक में प्रचलित नाना प्रकार के वादों को जानकर जो विचक्षण साधु अपने आत्मधर्म में स्थिर रहता हआ संयम में दत्तचित्त रहता है और बुद्धिमान साध समस्त परीक्षहों को समभाव पूर्वक सदन करता है तथा समस्त जीवों को अपनी आत्मा के समान देखता हुआ कषायों पर विजय प्राप्त करता है और किसी जीव को पीड़ा नहीं पहुंचाता है वह भिक्षु है। अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सभी अनुकूलताओं और प्रतिकूलताओं से अपने आपको अलग कर दें, मान अपमान प्रताड़ना शरीर क्षति और प्राणान्तक कष्ट आने पर भी समभाव पूर्वक रहे वह ही भिक्षु है, सच्चा साध है।
उन्होंने कहा कि इस अध्ययन में संजय राजर्षि ने क्षत्रिय मुनि को भरतादि बीस महान व्यक्ति जो कि एक दिन भोग व वैभव के उच्च शिखर पर थे, त्याग के उच्च शिखर पर कैसे पहुंच गये? इसकी संक्षिप्त झांकी कराई गई। इन सब चक्रवर्तियों और राजाओं ने जिन शासन की विशेषताओं को जान, समझ व देख कर उसी में प्रवाहित स्व पर कलयाण किया।
श्रीसंघ अध्यक्ष लक्ष्मीलाल चण्डालिया ने बताया कि इससे पूर्व साध्वी वीना जी महाराज ने अनाथी मुनि नाम 20वीं गाथा की मूल वाचना की।
संचालन वरिष्ठ श्रावक ऋषभ सुराणा ने किया।