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पहुँना-देशी घाणी : तेल निकालने की परंपरागत तकनीक।

वीरधरा न्यूज़।पहुँना@ श्री मनोहर शर्मा।

पहुना।मौजूदा दौर में बाजार में भले ही तेल निकालने की अत्याधुनिक मशीने आ गई हैं किंतु सदियों से तेल निकालने की परम्परागत तकनीक अर्थात देशी घाणी को लेकर लोगों को भरोसा व इससे तैयार तेल को काम में लेने में जरा भी कमी नहीं आई हैं। हां वर्तमान उच्च स्तरीय टेक्नोलोजी के जमाने में बैल के माध्यम से चलने वाली एवं परम्परागत लघु उद्योग के रूप में विख्यात ‘देशी घाणियों’ की संख्या में जरूर कमी आई हैं, किन्तु इसके माध्यम से तैयार होने वाले तेल/ अन्य उत्पादों को लेकर गुणवत्ता की दृष्टि से लोगों के बेशुमार भरोसे के चलते ये आज भी मजबूती से अपने अस्तित्व को बरकरार रखे हुए हैं। देशी घाणी के रूप में परम्परागत इस लघु उद्योग को मांगीलाल तेली जैसे लोगों से भी ताकत मिली हैं। राशमी कस्बे के रहने वाले मांगीलाल पिछले करीब 30 वर्षों से इस परम्परागत तकनीक को जिंदा रखने की कवायद के तौर पर देशी घाणी लघु उद्योग से जुड़े हुए हैं। इनके द्वारा सर्दी की ऋतु में नवम्बर से जनवरी तक घाणि को स्थापित कर लोगों को इससे निर्मित उत्पाद सुलभ कराए जाते हैं। मांगीलाल तेली की घाणी से तैयार तिली के तेल व सूखे मेवे से युक्त तिलकुटे को शुद्धता व गुणवत्ता की दृष्टि से सर्वाधिक पसंद किया जाता हैं। यहीं कारण हैं मांगीलाल घाणी वाले के रूप में यह उद्योग अपनी मौजूदगी वर्षो से कायम किए हुए हैं। बेहतरीन गुणवत्ता वाला परम्परागत लघु उद्योग देशी घाणी में बैलों से कोल्हू चलाकर तेल निकाला जाता हैं। इसे कच्ची घाणी का तेल भी कहा जाता हैं। आज के दौर में बैलों की जगह मशीनों ने ले ली हैं और अनेक स्थानों पर बैल की जगह मोटरसाईकिल से भी कच्ची घाणियां संचालित होने लगी हैं। बाजार में इस समय देशी घाणी अर्थात कच्ची घाणी के नाम से अनेक ब्रांडेड तेल उपलब्ध हैं किन्तु शुद्धता व गुणवत्ता की लिहाज से विश्वासपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता। देशी घाणी में आंखों के सामने तेल निकाल कर दिया जाता हैं और चूंकि यह परम्परागत तकनीक/तरीका हैं, पूरी प्रक्रिया लोगों को सुखद अनुभूति का अहसास भी कराती हैं। परम्परागत लघु उद्योग के रूप में देशी घाणी को जिंदा रखने/अस्तित्व बनाए रखने की कवायद में जुटे हुए हैं। ज्ञातव्य रहें, सर्दी के मौसम में तिली के तेल की सर्वाधिक खपत रहती हैं। देशी घाणी के माध्यम से तैयार सूखे मेवे से युक्त ‘तिलकुटा’ को भी लोगों द्वारा बेहद पसंद किया जाता हैं।
आयुर्वेद के अनुसार भी खास महत्व
मनुष्य के लिए ईश्वर का श्रेष्ठ वरदान हैं ‘तिल’। तिल सही मायने में शरीर को तन, मन और आत्मा के बीच संतुलन बनाकर स्वास्थ्य में सुधार करता हैं। तिल और तिली के तेल के सेवन से न केवल उपचार होता हैं बल्कि यह जीवन को लंबा और खुशहाल बनाता हैं(आयुर्वेद के अनुसार)। तिली के तेल के सेवन से वात्, पित और कफ जैसे मूल तत्वों में संतुलन बना रहता हैं व बीमारी इंसान तक नहीं पहुंचती हैं। गुणवत्ता व पोष्टिकता की दृष्टि से तिली का तेल सिर्फ देशी कच्ची घाणी(लकड़ी की घाणी) से निकला हुआ ही इस्तेमाल करना चाहिए। आयुर्वेद के अनुसार तिल एक महाऔषधि हैं जो विभिन्न असाध्य रोगों से बचाव करता हैं, यहां तक कि यह मृत कोशिकाओं को जीवित करने का काम करता हैं। ऐसे में तेल की शुद्धता व गुणवत्ता के महत्व को सहज ही समझा जा सकता हैं। साथ ही इन्हें बरकरार रखने का सशक्त माध्यम ‘देशी घाणी’ की महत्ता को भी दर्शाता है।

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